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                  भारतीय हस्तशिल्प

                परिचय  :-

 कलाकार विभिन्न प्रकार की वस्तुए बनाने के लिए अपने कौशल का उपयोग करते हैं जो सजावटी या कार्यात्मक हो सकती हैं । यह एक अनूठे प्रकार का शिल्प है क्योंकि इसमें किसी भी मशीन के उपयोग के बिना वस्तुएं पूर्ण रूप से हस्त निर्मित होती हैं । भारत में लोग , न केवल अपनी आजीविका कमाने के उपाय के रूप में बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित की जाने वाली कला के रूप में हस्तशिल्प का उपयोग करते हैं । जनजातीय एवं ग्रामीण समुदायों में हस्तशिल्पों को विशेष महत्व है . जो अपनी आजीविका के लिए उन पर निर्भर रहते हैं । भारत के कुछ प्रमुख हस्तशिल्प हैं :

               कांच निर्मित वस्तुएं :-

   कांच बनाने का पहला संदर्भ भारतीय महाकाव्य महाभारत में मिलता है । हालांकि भौतिक साक्ष्य प्राधिक हड़या सभ्यता में कांच के मनकों का कोई संकेत नहीं देते है । पहला भौतिक साक्ष्य गंगा घाटी ( 1000 ई.पू. ) के चित्रित । मृद्भाण्ड संस्कृति से सुंदर कांच के मनकों के रूप में मिलता है । शतपथ ब्राह्मण नामक वैदिक ग्रंथ में कांच के लिए प्रयुक्त शब्द ' कांच ' या कच है ।

      हमें महाराष्ट्र के ब्रह्मपुरी और कोल्हापुर में कांच उद्योग के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं जो 2 ईसा पूर्व से 2 ईसवी के बीच परिचालन में थे और यहां लेंटीक्युलर मनकों का निर्माण किया जाता था । ऐसा प्रतीत होता है कि कांच उद्योग ने ऑप्टिकल लेंस के क्षेत्र में भी प्रवेश किया था क्योंकि हमें संस्कृत ग्रंथ व्यासयोगचरित में चश्मे का संदर्भ मिलता है । 

       भारत के दक्षिणी भाग में , हमें दक्कन में ताम्रपाषाणिक स्थल मस्की से कांच के पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं । कांच के साक्ष्य प्रदान करने वाला अन्य स्थल आहर ( राजस्थान ) , हस्तिनापुर और अहिच्छत्र ( उत्तर प्रदेश ) , एरण और उज्जैन ( मध्य प्रदेश ) आदि हैं । मध्यकाल के दौरान मुगलों ने कांच की बनी वस्तुओं की कला को संरक्षण दिया और शीश महल जैसे अपने स्मारकों में सजावर के रूप में इनका उपयोग किया । कांच का हुक्का , सुगंधित बक्से अथवा इत्रदान और उत्कीर्णित कांच आदि अन्य कांच की वस्तुएं थीं , जो मुगलों के लिए प्रमुख रूप से निर्मित की जाती थीं । 

      वर्तमान में , कांच उद्योग विभिन्न रूपों में फैला हुआ है परंतु सबसे अधिक प्रसिद्ध कांच की चूड़ियों का उद्योग है । सबसे उत्तम चूड़ियां हैदराबाद में बनाई जाती हैं और इन्हें ' चूड़ी का जोड़ा ' कहा जाता है । इसके अतिरिक्त फिरोजाबाद कांच के झूमर और अन्य सजावटी सामानों के लिए प्रसिद्ध है । उत्तर प्रदेश में कांच का दूसरा केंद्र सहारनपुर है । यहां बच्चों के लिए ' पंचकोरा ' या कांच के खिलौने बनाए जाते हैं । इसी प्रकार , पटना ( बिहार ) में भी ' टिकुली ' नामक विचित्र प्रकार के कांच के सजावटी मनकों का निर्माण किया जाता है । यह शिल्प लगभग औद्योगिकीकरण में खो गया है । हालांकि यह अभी भी बिहार की संथाल जनजाति द्वारा बनाया जाता है । समकालीन और आधुनिक समय में कला के स्वरूप को पुनर्जीवित करने के लिए वर्तमान में बिहार की टिकुली कला को चमकते हुए सख्त बोर्डों पर भी बनाया जाता है ।

              कपड़े पर हस्तशिल्प :-

 1. टाई एंड डाई ( बांधना और रंगना ) 

 2. कढ़ाई 

 3. बुनाई

            टाई एंड डाई ( बांधना और रंगना ) :-

   कपड़ों पर विभिन्न प्रकार की हस्तकला तकनीकों का इस्तेमाल होता है , जैसे - बुनाई और छपाई कलाकार अन्य सामग्रियों पैटर्न बनाने के लिए लकड़ी के ब्लॉक या मुद्रित कपड़ों का उपयोग करते हैं । बांधने और रंगने की तकनीक से कपड़ों पर सुंदर डिजाइन आती है , और भारत में ऐसी अनेक तकनीके हैं । सबसे महत्वपूर्ण कलाओं में से एक बंधानी की कला है । इसे अंग्रेजी में ' टाई एंड डाई ' की तकनीक के रूप में भी जाना जाता है । राजस्थान और गुजरात में वर्तमान में भी प्रयोग की जाने वाली इस प्राचीन तकनीक के उपयोग के साक्ष्य उपलब्ध हैं । यह आध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी लोकप्रिय है । इसे विरोध रंगाई की प्रक्रिया भी कहा जाता है , जहां बांधा गया भाग उस रंग से नहीं रंगते हैं जिनमें कि कपड़े को भिगोया जाता है । गांठों की श्रृंखलाएं बनाते हुए इसे रंग में दुबाया जाता है , और इस प्रकार कलाकारों द्वारा इस पर डिजाइन बनाई जाती हैं । 

          कपड़े में लहरदार या तरंग जैसे पैटर्न बनाने वाली एक विशेष प्रकार की टाई और डाई तकनीक को लहरिया कहते हैं । इसे सामान्यतः जयपुर और जोधपुर में बनाया जाता है । टाई और डाई का एक अन्य प्रकार जिसे ' रंगाई की प्रतिरोध ' विधि भी कहा जाता है , ' ईकत ' कहलाती है । इस विधि में कपड़ा बुने जाने से पहले बुनाई के धागे बार - बार रंगे जाते हैं । इस कार्य के प्रमुख केन्द्र तेलंगाना , ओडिशा , गुजरात और आंध्र प्रदेश हैं ।

      प्राचीन काल की अन्य शैलियां जिन्हें अभी भी प्रयोग में लाया जा रहा है , इनमें प्रमुख है कलमकारी - जिसमें गहरे रंग के वनस्पतिक रंगों का उपयोग कर कपड़े की हाथ से छपाई की कला का उपयोग किया जाता है । यह सामान्यतः आंध्र प्रदेश , गुजरात , पश्चिम बंगाल और ओडिशा में प्रचलित है । कपड़े की सजावट की एक सुंदर तकनीक बटिक कला कहलाती है । इसमें कपड़े का एक छोर पिघले हुए मोम से रिसाया जाता है और इसके बाद बहुरंगी बंटिक साड़ियों एवं दुपट्टे का निर्माण करने के लिए कम तापमान पर रंगा जाता है । बटिक कला मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में प्रसिद्ध है । बटिक कला का उद्भव इंडोनेशिया से हुआ ।

        भारत में कपड़े के पैटर्न की कुछ तकनीकें व्यापारिक मार्गों के माध्यम से आयी थीं , उदाहरण के लिए , तन्चोई रेशम के में गुजरात बुनाई के विषय कहा जाता है कि इसका स्रोत चीन है । यह व्यापारिक समुदायों के माध्यम से आई होगी । वर्तमान में , वाराणसी में तनचोई रेशम जरी के काम की बुनकरों की विशेषता है । यह बुनाई एक बढ़िया

लघु चित्रकला जैसी दिखती है । एक दूसरी प्राचीन कला जामदानी ( पश्चिम बंगाल ) , जिसमें अलग - अलग शैलियों में मलमल की बुनाई पारदर्शी पृष्ठभूमि पर अपारदर्शी पैटर्न के साथ की जाती है । इस प्रकार से हमें पता चलता है कि भारत में विभिन्न प्रकार के कपड़े पर आधारित क्षेत्रीय हस्तशिल्पों का ढेर है ।


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