प्राचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
परिचय :-
भारतीय उप - महाद्वीप के हर कोने में अध्यात्मिक विकास प्राचीन काल से ही देखने को मिला है और कई विदेशी राष्ट्र इससे आकर्षित भी हुए हैं । इस देश पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों ने भी कई भारतीय धर्मों जैसे बौद्ध , जैन और हिन्दू धर्म को अपनाया है जिनमें यूनानी , फारसी , हूण और मंगोल भी शामिल थे । विश्व की भौतिक संस्कृति को समृद्ध बनाने में भारत ने भी बड़ा योगदान दिया है । बात चाहे इत्रों के आसवन , रंगों के निर्माण , चीनी के निष्कर्षण , कपड़ा बुनाई , बीजगणित एवं कलन गणित संबंधी तकनीक , शून्य की अवधारणा , शल्यचिकित्सा संबंधी तकनीक , परमाणु एवं सापेक्षता की अवधारणाओं , दवा के हर्बल सिस्टम , कीमिया ( Alchemy ) की तकनीक , धातु प्रगलन , शतरंज के खेल की हो या कराटे के मार्शल आर्ट आदि की , इन सब के साक्ष्य प्राचीन भारत में देखने को मिलते हैं और इस बात के प्रमाण भी मिले हैं जो यह दर्शाते हैं कि इनकी उत्पत्ति संभवतः यहीं हुई थी ।
इससे यह संकेत मिलता है कि भारत के पास वैज्ञानिक विचारों की एक समृद्ध विरासत है । आइये , अब उन विभिन्न क्षेत्रों पर दृष्टि डालते हैं जहाँ हमें भारत के विभिन्न वैज्ञानिकों के योगदान का पता चलता है ।
गणित :-
इसे आम बोलचाल की भाषा में हिसाब ( गणित ) भी कहा जाता है , इसमें शामिल है :
• अंक गणित ( अर्थमेटिक )
• बीज गणित ( अलजेब्रा )
• रेखा गणित ( ज्योमेट्री )
• खगोल शास्त्र ( एस्ट्रोनॉमी )
• ज्योतिष शास्त्र ( एस्ट्रोलॉजी )
1000 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसवी के मध्य , भारतीय गणितज्ञों द्वारा गणित पर अनगिनत प्रबंधों की रचना की गई जो उपरोक्त क्षेत्रों से संबंधित हैं । बीज गणित की तकनीक और शून्य की अवधारणा की उत्पत्ति संभवतः भारत में ही हुई थी ।
हड़प्या की नगर योजना से पता चलता है कि उस समय के लोगों को माप और रेखा गणित का अच्छा ज्ञान था । मंदिरों में ज्यामितीय रूपांकनों के रूप में रेखा गणितीय स्वरूप देखने को मिल सकते हैं ।
बीज गणित का अर्थ है ' अन्य गणित ' क्योंकि बीज शब्द का अर्थ होता है - ' अन्य ' या ' दूसरा ' । इस नाम का चयन इसमें निहित गणना की प्रणाली के कारण किया गया था , जिसे एक पारंपरिक गणना से अलग , एक समानांतर गणना प्रणाली के रूप में मान्यता दी गई जबकि भूतकाल में सिर्फ पारंपरिक गणना प्रणाली का ही उपयोग होता था जो उस समय एकमात्र प्रणाली थी । इससे इस बात का पता चलता है कि वैदिक साहित्य में भी गणित का अस्तित्व था जो आशुलिपि गणना प्रणाली से संबंधित था ।
गणित पर आधारित सबसे आरंभिक पुस्तक 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बौधायन द्वारा लिखित शुल्बसूत्र थी । शुल्बसूत्र 2 के वर्गमूल के लिए सूत्र और पाइथागोरस प्रमेय के समान कुछ अवधारणाओं का भी उल्लेख है । इसमें अग्नि - वेदी निर्माण से संबंधित ज्यामिति भी शामिल है ।
आपस्तम्ब ने द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में व्यावहारिक रेखागणित की अवधारणाओं को प्रस्तुत किया जिनमें न्यूनकोण , अधिककोण और समकोण का भी उल्लेख मिलता है । कोणों के इस ज्ञान से उन दिनों अग्नि वेदियों के निर्माण में सहायता मिलती थी ।
आर्यभट्ट :-
आर्यभट्ट ने प्रायः 499 ईसवी में आर्यभट्टीय की रचना की , जिसमें गणित के साथ - साथ खगोल शास्त्र की अवधारणाओं का स्पष्ट उल्लेख किया गया था । संस्कृत में लिखी गई इस पुस्तक के चार खंड हैं :
1. समय की बड़ी इकाइयों की गणना करने की विधि ।
2. संख्या सिद्धांत , रेखा गणित . त्रिकोणमिति , और बीज गणित
3. एवं 4. खगोल शास्त्र पर
खगोल शास्त्र को अंग्रेजी में एस्ट्रोनॉमी कहा जाता है । खगोल नालन्दा में स्थित प्रसिद्ध खगोलीय प्रयोगशाला का नाम था जहाँ आर्यभट्ट ने अध्ययन किया था ।
आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक में , खगोल शास्त्र अध्ययन के निम्नलिखित लक्ष्य बताए हैं :
• पंचांग की सटीकता का पता लगाना ।
• जलवायु और वर्षा के स्वरूपों के बारे में जानना ।
• नौपरिवहन ( Navigation )
• जन्म कुंडली देखना ।
• ज्वार - भाटा और नक्षत्रों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना । इससे मरुस्थलों और समुद्रों को पार करने में और इस तरह रात के समय दिशा को दर्शाने में सहायता मिली ।
आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है । उन्होंने एक त्रिभुज के क्षेत्रफल को सूत्र बनाया तथा बीज गणित का आविष्कार किया । आर्यभट्ट द्वारा प्रदान किया गया पाई का मान यूनानियों द्वारा दिए गए मान से ज्यादा परिशुद्ध है ।
आर्यभट्टीय के ज्योतिष वाले भाग में खगोल शास्त्र की परिभाषा , ग्रहों की सही स्थिति का पता लगाने की विधि , सूर्य एवं चन्द्रमा की गति और ग्रहणों की गणना का भी वर्णन किया है । उनकी पुस्तक में , ग्रहण का जो कारण बताया गया है वह यह है कि जब अपनी धुरी पर घूमते समय पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है तब चन्द्र ग्रहण होता है , और जब चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है तब सूर्य ग्रहण होता है । हालाँकि , रूढ़िवादी सिद्धांतों में पहले इस बात का उल्लेख था कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जहाँ राक्षस ग्रह को निगल लेता है । इस प्रकार , हम कह सकते हैं कि आर्यभट्ट के सिद्धांत , ज्योतिष शास्त्र के रूढ़िवादी सिद्धांतों से बिल्कुल भिन्न थे और ये सिद्धांत आस्थाओं की बजाय वैज्ञानिक व्याख्या पर आधारित थे । यहाँ ध्यान देने योग्य है कि अरब लोग गणित को ' हिंदीसत ' या भारतीय कला कहते थे जिसे उन्होंने भारत से सीखा था । इस मामले में सम्पूर्ण पश्चिमी विश्व , भारत का ऋणी है ।
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