क्या भारतीय समाज में समलैंगिकता स्वीकार्य हैं ?
समलैंगिकता पूरे विश्व के मानव समाज के समक्ष एक प्राचीन लेकिन अबूझ पहेली रही है । इससे आँख चुराने , हिंसा द्वारा दबाने हेय दृष्टि से देखने एवं एक बीमारी मानने एवं मनवाने की कोशिश भी की गई । लेकिन समय के साथ वैश्विक समझ में तेजी से बदलाव आया है एवं कई राष्ट्रों ने समलैंगिकों को कानूनी मान्यता देकर मुख्य धारा में शामिल करने का मानवीय कदम उठाया है । ऐसे में समलैंगिकों को लेकर भारत की कानूनी अवस्था , जो कि अंग्रेजों के समय बने 1861 की धारा 377 द्वारा संचालित है, का सवालों के घेरे में होना लाजमी है । लेखकों , कलाकारों , न्यायाधीशों एवं जनप्रतिनिधियों ने भी समय - समय पर समलैंगिकता को भारत में कानूनी मान्यता दिये जाने को लेकर आवाज मुखर की है ।
इतिहास की बात करें तो विश्व की अलग - अलग संस्कृतियों में समलैंगिकता उपस्थित रही है । प्रसिद्ध मानवशास्त्री मार्गरेट मीड ने भी आदिम समाजों में समलैंगिकता की उपस्थिति बताई है । रोमन सभ्यता में भी इसे बुरा नहीं माना गया , वहीं प्राचीन यूनान में तो इसे सम्मानित स्थान प्राप्त था । वात्स्यायन के कामसूत्र में समलैंगिकता का उल्लेख है । ऋग्वेद की एक ऋचा- ' विकृतिः एव प्रकृतिः ' यानी जो अप्राकृतिक दिखता है वह भी प्राकृतिक है , को समलैंगिकता के प्रति सहिष्णु भारत का द्योतक माना गया है । दरअसल यूरोप के प्रबोधनवाद के बाद समलैंगिकता को कड़े नैतिक आग्रहों के कारण हेय दृष्टि और अपराध तक के रूप में देखा जाने लगा । आज जब प्रबोधनवाद के जनक यूरोप में ही कई राष्ट्र इसको कानूनी मान्यता दे चुके हैं , तब इस पर रूढ़िवादी होना दो - तीन शताब्दी पुराने असंगत विचारों को ढोते रहने के साथ - साथ , अपने मानव इतिहास के समन्वयवादी और उदार मूल्यों से विमुख होना ही है ।
समलैंगिकता को भारत में कानूनी मान्यता देने के पक्ष में अगला तर्क यह है कि यह दो वयस्क व्यक्तियों का निजी चुनाव है , जो किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता । साथ ही इसे आपराधिक कृत्य मानना व्यक्ति के जीवन में गैर - ज़रूरी दखलअंदाज़ी और नैतिक अतिवाद का सूचक लगता है । संविधान के अनुच्छेद -21 द्वारा प्रदेय ' निजता का अधिकार ' व्यक्ति को उसकी लैंगिक अस्मिता ( Sexual Identity ) का अधिकार दिये बिना अधूरा है ।
समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देना इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि समलैंगिकों को अपने यौन अभिविन्यास ( Sexual Orientation ) के कारण हेय दृष्टि से देखा जाता है । वह न सिर्फ भारतीय संविधान के ' समानता के सिद्धांत ' के विपरीत है बल्कि एक आधुनिक तरह की भेदभाव आधारित व्यवस्था की भी रचना करता है , जैसे- जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था में शूद्रों के साथ और रंग के आधार पर अश्वेतों के साथ किया गया । इन भेदभावों को समाप्त करने के लिये कानूनी पहल की आवश्यकता पड़ी । उसी तरह समलैंगिकता को भी कानूनी मान्यता देना समाज के मूल्यों को रूढ़ियों से मुक्त करने की दिशा में एक प्रगतिशील कदम होगा ।
एक तर्क यह है कि यह परिवार की संस्था को नष्ट कर रहा है किन्तु अलग - अलग न्यायालयों में दाखिल हलफनामे और याचिकाओं , जिन्हें समलैंगिकों के माँ - बाप या दादा - दादी ने दायर किया है , में यह बताया है कि परिवार ऐसा नहीं सोचते । असल में कई समलैंगिक अपने बूढ़े माता - पिता का अकेला सहारा हैं । धारा 377 उनका उत्पीड़न करती है । ऐसा कोई नियम या उदाहरण नहीं जो यह साबित करता हो कि समलैंगिक अपने माँ - बाप या भाई - बहनों से निकटतम रिश्ते नहीं रखते । उल्टे , धारा 377 समलैंगिकों को समाज में प्रकट रूप से रहने से हतोत्साहित करती है , जिसके फलस्वरूप अपने में छूटता व्यक्ति धीरे - धीरे परिवार और अन्ततः समाज से कटकर रहने पर बाध्य हो जाता है । वहीं यह बिन्दु भी जोड़ा जाना आवश्यक है कि समाज में समलैंगिकता के विपरीत माहौल होने के कारण अधिसंख्य समलैंगिक खुले रूप से अपनी समलैंगिकता स्वीकार नहीं करते ।
इस कारण कई बार वह परिवार और समाज के दबाव में विपरीत लिंगी विवाह करने को भी बाध्य होते हैं । विवाह उपरांत जीवन न सिर्फ समलैंगिक व्यक्ति के लिये बल्कि उसके साथी के लिये भी त्रासद हो जाता है । कुछ महीने पहले एम्स के एक समलैंगिक डॉक्टर द्वारा इसी कारण आत्महत्या का कदम उठाया गया क्योंकि विवाह उपरांत वह स्वयं को लगातार अपराधबोध से ग्रस्त पा रहा था । ऐसे में यह साफ है कि समलैंगिकता पर कानूनी रोक ने कई पारिवारिक जीवन नष्ट करने में एक शर्मनाक भूमिका निभाई है । एक अन्य बिन्दु यह भी है कि समाज एवं परिवार से कटने को बाध्य व्यक्ति समाज व राष्ट्र में अपना योगदान भी नहीं दे पाता । इससे न सिर्फ उसके जीवन में रिक्तता बढ़ती है वरन् राष्ट्र के मानव संसाधन का भी अपव्यय होता है । इसलिये समलैंगिकता को मान्यता देना न सिर्फ व्यक्ति एवं समाज बल्कि राष्ट्र के भी हित में होगा ।
अब विषय के दूसरे पहलुओं पर विचार करते हैं , जिन्हें समलैंगिकता के विरोध में प्रस्तुत किया जाता है । शायद जो लोग समलैंगिक शारीरिक संबंधों की वकालत करते हैं उनकी सोच भी कहीं - न - कहीं यथार्थ से परे है तथा विकृत है जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिये दीर्घ काल में संकटपूर्ण स्थिति का निर्माण कर सकती है । समलैंगिक संबंध कहीं न कहीं अप्राकृतिक है । अगर दो महिला या दो पुरुष परस्पर संबंध बनाते हैं तो इसका परिणाम क्या होगा ? हमें यह समझना होगा कि प्राकृतिक संरचना के अनुरूप शारीरिक संबंध का उद्देश्य महज काम वासना की पूर्ति या आनंद प्राप्ति के लिये नहीं है अपितु यह तो संतानोत्पत्ति का पवित्र माध्यम है अर्थात् सृष्टि की संरचना का आधार है । अत : अगर इस प्रकार की आदतों का यूँ ही समर्थन किया गया तो ये सृष्टि की विस्तार प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं ।
क्या भारतीय समाज में समलैंगिकता स्वीकार्य हैं ? - निबंधवास्तव में यह हमारे मन से उपजी समस्या है । फिर भी अगर यह वाकई किसी प्रकार की समस्या है तो इसे स्वीकार करते हुए हमें इसके निराकरण की बात करनी चाहिये न कि इसके पक्ष में कुतर्क कर इसे पालने की । ठीक उसी तरह जैसे कि अगर हमारे शरीर का कोई हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाए तो हम उसका उपचार करते हैं । इसी जन पर हमें समाज के इस तबके को भी मुख्य धारा से जोड़ने का प्रबंध करना चाहिये और योग इत्यादि के माध्यम से इसका उपचार भी भली - भाँति संभव है । हमें इस प्रकार के संबंधों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का भी ख्याल करना चाहिये । अगर दो समान लिंग के व्यक्ति साथ रहते हैं और उन्हें कभी भविष्य में संतान प्राप्ति की इच्छा हुई तो क्या होगा ? खुद उनके द्वारा तो यह संभव नहीं । ऐसे में उन्हें या तो गोद लेना होगा या किसी अन्य की सहायता पर निर्भर रहना होगा । लेकिन इससे भी जटिल पक्ष है उस संतान का पालन - पोषण । उसे माता एवं पिता दोनों का स्नेह तो एक साथ मिल नहीं सकता ।
विज्ञान भी इस बात को मानता है कि शिशु के सम्यक् विकास के लिये माँ एवं पिता दोनों की आवश्यकता होती है । अगर बच्चा एक असामान्य माहौल में पलेगा तो उस पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के पूरे आसार होंगे । जो लोग ' निजता के अधिकार ' की आड़ लेकर इसका समर्थन कर रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि जब आपकी क्रिया किसी सामाजिक एवं प्राकृतिक संरचना पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है तो वह मसला आपका निजी मसला नहीं रह जाता ।
"दो समान लिंग के व्यक्ति साथ रहते हैं और उन्हें कभी भविष्य में संतान प्राप्ति की इच्छा हुई तो क्या होगा ? खुद उनके द्वारा तो यह संभव नहीं । ऐसे में उन्हें या तो गोद लेना होगा या किसी अन्य की सहायता पर निर्भर रहना होगा । लेकिन इससे भी जटिल पक्ष है उस संतान का पालन - पोषण । उसे माता एवं पिता दोनों का स्नेह तो एक साथ मिल नहीं सकता । विज्ञान भी इस बात को मानता है कि शिशु के सम्यक् विकास के लिये माँ एवं पिता दोनों की आवश्यकता होती है । "
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि समलैंगिकता के मुद्दों पर धर्म , संस्कृति और सामाजिक रूढ़ियों की दुहाई नहीं दी जानी चाहिये । समलैंगिकता न तो बीमारी है और न ही विकृत सेक्स । मानव का उद्देश्य क्या सिर्फ बच्चे पैदा करना ही है ? अगर पुरुष - पुरुष से अथवा महिला - महिला से प्राकृतिक रूप से ही प्रेम करते हैं उन्हें राज्य को अपराधी नहीं घोषित करना चाहिये । समलैंगिक लोग आज अचानक से होना नहीं शुरू हो गए हैं , हो सकता है इनकी पहचान अब हुई हो । 1962 के दशक में ही हिंदी साहित्य मशहूर रचनाकार राजकमल चौधरी ने ' मछली मरी हुई ' नामक उपन्यास लिखा जिसमें समलैंगिक स्त्रियों का जिक्र था लेकिन विडंबना यह है कि उस स्त्री का बलात्कार उसका एक नपुंसक भाई करता है और उनके पिता उन्हें गर्व की नजरों से देखना कि अब इनकी बीमारी दूर हुई । अत : यह धारणा त्यागनी होगी कि समलैंगिकता एक बीमारी है ।
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