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शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं - निबंध हिंदी में

       शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं - निबंध

मध्यकाल के एक कवि और अकबर के नवाल को जाने वाले अब्दुर्रहीम खान - ए - खाना का एक दोहा है-

           " रहिमन जिह्वा बावरी , कहि गई सरग - पताल । 
             आपु तो कही भीतर रही , जूती खात कपाल ।। " 

    अर्थात् जीभ भी कैसी बावली है कि कुछ भी बोलकर खुद तो मुँह के अंदर चली जाती है पर जूतियाँ सिर पर पड़ने लगती है । शब्दों की मार बहुत तीक्ष्ण भी होती है और बहुत मीठी भी । एक शब्द महायुद्ध करवा देता है तो दूसरा शब्द ऐसी शीतल फुहारें छोड़ता है कि सारा युद्धोन्माद शांति में बदल जाता है । इसीलिये शब्द की महिमा अपरंपार बताई गई है । कुछ भी बोलने के पहले सोचना ज़रूरी है वरना बोलने में तो कुछ नहीं जाता पर नतीजे भयानक हो जाते हैं । पुराण काल से ही यह सीख बताई जाती रही है मगर इस पर अमल बहुत कम लोग कर पाते हैं । सीता यदि राम से स्वर्णमृग न मांगतीं तो शायद न तो उनका हरण होता , न इतना बड़ा युद्ध ! द्रौपदी यदि दुर्योधन की खिल्ली न उड़ाती कि ' अंधे के घर अंधा ही पैदा होता है ' , तो शायद महाभारत ही नहीं होता ! आदमी की ज़बान ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु है और मित्र भी । 

अकबर इलाहाबादी ने कहा था-

                " खीचों न कमानों को न तलवार निकालो , 
                  जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो ।
"

     यानी तोप का मुकाबला शब्द ही कर सकते हैं । शब्द अपने नकारात्मक रूप में भी मौजूद हैं और अपने सकारात्मक रूप में भी । बस यह तो उसे प्रयोग में लाने वाले पर निर्भर है कि वह उस शब्द का प्रयोग किस मंशा से करता है । एक ही शब्द कहीं पर मार - काट मचा देता है तो कहीं उसका प्रयोग प्यार का प्रतीक बन जाता है । शब्द की महिमा उसकी युक्ति पर निर्भर करती है कि उसे प्रयोग में कहाँ लाया गया और उस शब्द का प्रयोग किसने किया । किसी फिल्म में विलेन जब उस शब्द का प्रयोग करता है तो दर्शक समझ जाता है कि विलेन अब अपने खलरूप में साक्षात् उतर आया है , लेकिन जब नायक प्रयोग करता है तो साफ लगता है कि अब कुछ शुभ होगा । हिटलर और उसके सेनापति भी जीत चाहते थे और मित्र राष्ट्र भी । दोनों तरफ मार - काट थी और युद्धोन्माद था , मगर हिटलर की तरफ जहाँ तानाशाही थी वहीं मित्र राष्ट्रों की तरफ विश्वशांति का जज़्बा । पर दोनों तरफ से शब्दों की मार समान थी और उनका फलित अलग - अलग ।

शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं - निबंध हिंदी में
शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं - निबंध हिंदी में 


                           शब्दों के जो खिलाड़ी होते हैं वे शब्दों का खूब सोच - समझकर ही इस्तेमाल करते हैं । बड़े - बड़े लेखकों व साहित्यकारों के विचार निश्चित ही प्रभावित करते हैं मगर उसे यदि शब्दों में महारत नहीं है तो वह साहित्य में भी लोकप्रिय नहीं बन पाएगा । और अगर शब्दों पर उसकी पकड़ है तो लोकप्रियता की सीढ़ियाँ धड़ाधड़ चढ़ता जाएगा । अंग्रेजी में यदि अर्नेस्ट हेमिंग्वे को दक्षता हासिल थी तो हिंदी में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ' अज्ञेय ' को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है जिनके शब्द कठिन होते हुए भी सीधे पाठक के मर्म पर चोट करते हैं । मुंशी प्रेमचंद ने हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि को अपनाया जिसका नतीजा यह निकला कि हिंदी में मुंशी प्रेमचंद उपन्यास और कहानी के प्रतीक बन गए । बहुत - से लोगों को पता नहीं होगा कि बीसवीं सदी की शुरुआत में लिखना शुरू करने वाले बाबू देवकीनंदन खत्री ने अपनी सामान्य बोली जाने वाली भाषा में और किस्सागो शैली में इतने लोकप्रिय उपन्यास लिख डाले कि असंख्य लोगों ने बस देवकीनंदन खत्री के इन उपन्यासों , खासकर ' चंद्रकांता ' व ' चंद्रकांता संतति ' तथा ' भूतनाथ ' पढ़ने के लिये ही हिंदी सीखी । कहा जाता है कि मुंशी प्रेमचंद पर भी बाबू देवकीनंदन खत्री की लोकप्रियता का इतना असर हुआ कि उन्होंने भी हिंदी भाषा तथा देवनागरी लिपि में ही लिखने की ठानी । वरना अपने शुरुआती दौर में मुंशी प्रेमचंद उर्दू में ही लिखते थे । यह शब्दों व उनके चयन का ही जादू है । आज भी कबीर अपने फक्कड़पन और सधुक्कड़ी भाषा व शब्दों के कारण पूरे उत्तर भारत के लोक में समाए हैं । यही हाल तुलसीदास का है । यद्यपि उन्होंने सधुक्कड़ी भाषा इस्तेमाल नहीं की पर हर स्थान के लिये उपयुक्त शब्द चयन के कारण ही वे लोकमानस में समा गए । जिस वाल्मीकि रामायण को तुलसी के पूर्व सिर्फ ब्राह्मण ही पढ़ पाते थे उस रामायण से वे लोग भी परिचित हो गए जो तब तक उससे हीन थे । शब्द जीवंतता प्रदान करते हैं और कथोपकथन भी करते चलते हैं , यह आज से लगभग पाँच सौ साल पहले ये दोनों भक्तिकालीन कवि बता गए थे । इसी संदर्भ में सूरदास को भी याद कर लेना चाहिये जिनके शब्द तो चलचित्र की भाँति दृश्य सजीव कर देते हैं । उनका एक पद हैं -

           " कबहुँ पलक हरि मूंद लेत हैं , 
               कबहुँ अधर फरकावैं। "

     अब एक नेत्रहीन कवि इस दृश्य का जब वर्णन करता है तो वह अपने अवचेतन में स्वयं भी शब्द के मार्फत ही अधर फरकाने की क्रिया को देख पाता होगा ।

          शब्द कैसे प्रतिभा को निखारते हैं और चातुर्य का पर्दाफाश कर देते हैं इसका एक अच्छा उदाहरण कालिदास के संदर्भ में है । कालिदास एक बार दरबार से नाखुश होकर अज्ञातवास पर चले गए अब राजा भोज बड़े परेशान ! चारों तरफ ढूंढा पर काम कालिदास का कहीं पता नहीं चला । आखिर में उन्होंने एक उपाय निकाला । उनके दरबार में धनपाल , दामोदर और शेखर नाम के तीन ब्राह्मण बटुक हुआ करते थे । इनमें से धनपाल एक ही बार में सुनकर कोई भी श्लोक जस का तस सुना देता था और दामोल दो बार सुनने के बाद तथा शेखर तीन बार सुनने के बाद । राजा भोज ने राजाज्ञा जारी की कि वे हर उस कवि को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देंगे जो वह कविता सुनाए जो उसकी नई कविता हो और उसे उसने कहीं सुनाई न हो । सुनाते वक्त राजा भोज अपने दरबार में इन तीनों ब्राह्मण बटुकों को बिठा लेते और दरबार में स्वर्ण मुद्राओं की आकांक्षा लेकर आए कवि से अपनी कविता सुनाने को कहते । वह जैसे ही सुनाता उसे सुनते ही धनपाल कहता कि महाराज यह तो मैंने सुन रखी है और वह उसकी आवृत्ति कर देता । दामोदर उसकी हाँ में हाँ कर देता और वह एक बार तो उस कवि से और दोबारा धनपाल के मुँह से सुनकर जस की तस सुना देता । अब शेखर का नंबर आता तो वह भी कहता कि हाँ महाराज मैंने भी सुन रखी है और वह भी उसे सुना देता । तब राजा भोज कहते कि कवि तुम्हारी कविता नई नहीं है इसलिये अब इस पर तो कोई पुरस्कार बनता नहीं । कालिदास ने भी इसे सुना तो उन्होंने एक दरिद्र ब्राह्मण को एक कविता लिखकर दरबार में भेजा और कहा जाओ तुम्हें वहाँ एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ मिलेंगी । वह ब्राह्मण दरबार में आया और अपनी कविता सुनाने का आग्रह किया । राजा भोज के ' हाँ ' कहने पर उसने यह श्लोक सुनाया-

 

         " स्वस्ति श्री भोजराज ! त्रिभुवनविदितो धार्मिकस्ते पिताऽभूत्
            पित्रा ते वै गृहीता नवनवतिमिता रत्नकोटिर्मदीया ।
            ता मे देहीतिराजन् सकलजनबुधैयिते सत्यमेतन्नो वा 
            जानन्ति ते तन्मम कृतिमथवा देहि लक्षं ततो मे । "

    

        ( अर्थात् हे राजा भोज संसार जानता है कि आपके पिता बड़े ही धार्मिक थे । उन्होंने मुझसे 99 करोड़ मुद्राएँ कर्ज ली थी । शायद आपके सभा पंडित ( ब्राह्मण बटुक दामोदर , धनपाल और शेखर ) भी यह सत्य जानते हैं । यदि वे नहीं जानते और मेरा श्लोक नया समझते हैं तो मुझे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दिलवाएँ । )

          दामोदर , धनपाल और शेखर मुँह ताकने लगे तथा राजा को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देनी पड़ी । परन्तु राजा ने धन देकर उस दरिद्र ब्राह्मण से असली कवि का पता ले ही लिया क्योंकि वे समझ चुके थे कि यह प्रतिभा इस ब्राह्मण में नहीं हो सकती । कहने का आशय यह कि शब्द उसके असली प्रयोक्ता का भेद भी खोल ही देते हैं । शब्द का प्रयोग कौन कैसे करता है यह अनायास प्रतिभा नहीं सायास ही संभव है ।

         कहा जाता है कि कूटनीति का सारा खेल शब्दजाल ही है । राजनेता तो बोलकर चल दिये , चूँकि उन्हें जनता से तालियाँ पिटवानी होती हैं , पर कूटनीतिज्ञ उन्हीं शब्दों से खेलकर एक नया ही अर्थ निकाल डालते हैं । भारत तो इसलिये क्योंकि वह ब्रिक्स का सदस्य देश है और पाकिस्तान इसलिये कि उन्हीं दिनों शंघाई सहयोग संगठन से जुड़े देशों की बैठक वहीं पर होनी थी । भारत के अलावा पाकिस्तान भी उसके ऑब्जवर देशों में है इसलिये पाकिस्तान भी वहाँ पहुँचा । लगभग एक साल से जमी बर्फ और पिघली और भारत एवं पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात हुई । मुलाकात की वाहवाही तो खूब हुई मगर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अपनी बातों व घोषणाओं का जवाब पाकिस्तानी सेना तथा आईएसआई को भी देना गर्मजोशी तब काफूर हो गई जब पाकिस्तान ने अपने शब्दजाल के गोले फेंकने शुरू कर दिये । पर यह भारतीय कूटनय का कमाल ही था कि अपने शब्दों के जरिये ही उसने तमाम बातें मनवा भी लीं । चाहे वह विदेश सचिवों की बैठकों का मामला हो अथवा दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की मुलाकातों का ।

                 इसीलिये शब्दों की महिमा को अपरंपार और अक्षर को नश्वर बताया गया है । शब्दों की धार बी से भी ज्यादा नुकीली और तलवार से भी ज्यादा तेज़ होती है । तलवार की धार से एक बार आदमी भले ही बच जाए मगर शब्द की मार उसे कहीं का नहीं छोड़ती । यही कारण है कि संभलकर बोलने और उपयुक्त शब्द इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है । जो संभलकर बोलेगा वह वाहवाही भले न लूटे पर जीतेगा वही , यह तय है । संसार पर राज वही करता है जो अपने शब्दों का सही इस्तेमाल जानता है और कब , कहाँ , क्या शब्द बोला जाए , इसे पहचानता है । शब्द से परे कुछ नहीं और उसके पार भी ।

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