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जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइए : गांधी जी- निबंध (upsc)

 जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइए - गांधी जी |


लंदन के वेस्टमिंस्टर एबी शहर में एक अंग्रेज़ पादरी की कब्र पर कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं -

" जब मैं जवान था तब मेरी कल्पनाओं की कोई सीमा नहीं थी , मैंने विश्व को बदल डालने का सपना देखा । जैसे - जैसे मेरी उम्र बढ़ी और बुद्धि आई मुझे लगा कि दुनिया नहीं बदलेगी और मैंने अपने लक्ष्य को छोटा कर लिया और दुनिया को बदलने की बजाय अपने देश को बदल डालने का फैसला किया , लेकिन यह भी एक दुरूह कार्य जैसा ही लगा । जीवन के अंतिम दिनों में हताश होकर मैंने अंतिम प्रयास के रूप में खुद के परिवार को ही बदलने का फैसला किया , और उन लोगों को जो कि मेरे नज़दीक थे , लेकिन मैं इनमें से किसी को भी बदल नहीं सका । और अब जबकि मैं अपनी मृत्युशैय्या पर हूँ , मुझे अचानक यह महसूस हुआ कि अगर मैंने केवल खुद को बदल लिया होता तो अपनी प्रेरणा से अपने परिवार को भी बदल डालता , और परिवार वालों के सहयोग और उत्साहवर्द्धन से मैं अपने देश को बदलने के लायक हो जाता और क्या पता मैं दुनिया को भी बदल देता । " 

    उपर्युक्त घटना गांधी जी के इस कथन कि- " जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइये " की परिपुष्टि करती है और प्रासंगिक जान पड़ती है । “ एक इन्सान के रूप में हमारी महानता इसमें इतनी नहीं है कि हम इस दुनिया को बदलें , जितनी इसमें है कि हम अपने आप को बदल डालें । " गांधी के स्वयं में परिवर्तन संबंधी कथन का ही यह दूसरा रूप है । परिवर्तन प्रकृति का नियम है और सृष्टि की नवीनता के लिये यह बेहद जरूरी भी है । कुछ परिवर्तन शाश्वत होते हैं जिन पर चाहकर भी हमारा वश नहीं चल सकता जैसे कि मौसम का बदलना , बारिश का होना न होना , सूरज का उगना और ढल जाना तो कुछ परिवर्तन बेहद मानवीय किस्म के होते हैं जिन्हें मानव चाहकर बदल सकता है । यह उसके वश में होता है जिसमें उसके व्यक्तिगत स्वभाव से लेकर तमाम नवीन आविष्कार व भौतिक परिवर्तन शामिल हैं । 

       यह मानवीय प्रवृत्ति है कि हम अपनी जिम्मेदारियों और कर्त्तव्यों से तो बचना चाहते हैं परंतु अधिकार सुख का भरपूर लाभ उठाना चाहते हैं । हम अपनी उपलब्धियों का सेहरा तो खुद के सर बड़े गर्व से बांधते हैं परंतु गलतियों का ठीकरा दूसरों पर ही फोड़ते हैं । कहा भी गया है कि ' पर उपदेश कुशल बहुतेरे । ' वर्तमान की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में इंसान दिन - ब - दिन स्वार्थी होता जा रहा है । हम यह तो चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे हिसाब से बदल जाएँ परन्तु हम खुद को नहीं बदलते । 

    हम दूसरे से इज्जत , स्वागत और प्यार तथा वफादारी तो पूरी मात्रा में चाहते हैं परन्तु खुद को उनकी अपेक्षाओं पर कितना खरा साबित कर रहे हैं इस ब का मूल्यांकन कभी नहीं करते हैं । भला जब तक हम दूसरों को इज्ज़त और प्यार नहीं देंगे हम उनसे कैसे इसी की उम्मीद कर सकते हैं । हम मंचों पर बड़ी - बड़ी बातें तो करते हैं परन्तु उन बातों को अपने दैनिक जीवन में अमल में नहीं लाते हैं । कई बार उपरोक्त पादरी की तरह हम भी बड़े - बड़े सपने तो देखते हैं समाज को बदल डालने के , व्यवस्था में आमूल - चूल परिवर्तन के परन्तु खुद को ही उनके अनुरूप नहीं बदलते । हमें लगता है कि हम पूर्ण हैं और हममें किसी भी बदलाव की कोई जरूरत नहीं है और इसी भ्रम में हमारे द्वारा बदलाव के सभी सपने अधूरे रह जाते हैं । दरअसल बदलना हमें खुद को होता है पर हम सबसे पहले संसार को ही बदल डालना चाहते हैं , दूसरों से ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएँ पाल लेते हैं और जब हमारी ये उम्मीदें और अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती तो हम खुद की बजाय उन्हीं लोगों को कोसने लगते हैं । गालिब का एक शेर है कि 

  " उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा ,
    धूल चेहरे पे थी और आईना साफ करता रहा । " 

वास्तव में ये चेहरे की धूल हमारे नहीं हो जाएंगे । हम देख रहे हैं कि अवगुण और द्वेष ही हैं जो खुद हमें ही दूर करना है , आईना बदलने से हमारे दोष दूर वर्तमान में भ्रष्टाचार , समाज में नारियों के खिलाफ होते अपराधों को लेकर तथा अन्य विभिन्न सामाजिक मुद्दों को लेकर हर दिन धरना - प्रदर्शन और आंदोलनों की संख्या बढ़ती जा रही है , अन्ना के आंदोलन ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरोध में एक लहर पैदा कर दी । गांधी जी द्वारा किया गया आमरण अनशन , सत्याग्रह का अहिंसात्मक रूप आज भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो रहा है । परंतु हम एक बात और जो देख रहे हैं वह यह कि इन आंदोलनों का स्वरूप बहुत ही प्रतिक्रियावादी और क्षणिक किस्म का होता जा रहा है , और ये आंदोलन कुछ ही दिनों में और कई बार तो तुरंत परिणाम न मिलने पर खत्म होते जा रहे हैं , इन आंदोलनों का स्वरूप दीर्घकालिक नहीं है । क्योंकि अब हम आंदोलनों के मूल में छिपी भावना और एक आंदोलनकारी के धैर्य और साहस तथा निःस्वार्थी स्वरूप को भूलते जा रहे हैं । गांधी जी का सामाजिक जीवन उनके व्यक्तिगत जीवन की साधारणता , सच्चाई और त्याग से संचालित होता था । वे जो कहते थे , उसे खुद भी करते थे तभी उनमें नैतिकता का आत्मबल और ईमानदारी का साहस था और इसकी साक्षी उनके जीवन की तमाम घटनाएँ हैं जहाँ वे अगर नियत समय से थोड़ा भी विलंबित हो जाते हैं तो अपराध बोध महसूस करते , इसके लिये माफी भी मांगते हैं । 

    अगर गांधी ईमानदारी और सब के लिये जनता को प्रेरित करते हैं , अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाने की बात करते हैं तो वे स्वयं भी इसे व्यवहार में लाते हैं । उस घटना से तो हम सब परिचित हैं कि जब तक वे खुद की बहुत ज्यादा मिठाइयाँ खाने की आदत को सुधार नहीं लेते है तब तक एक बच्चा जिसकी माँ गांधी जी के पास शिकायत लेकर आई थी , उसे मना नहीं करते हैं । उसे उन्होंने उस दिन मना किया जब वे स्वयं भी अपने मिठाई खाने की आदत से मुक्त हो गए । वर्तमान में आंदोलनों के बेहद परिणामवादी और कई बार व्यक्तिगत स्वार्थी के आड़े आ जाने के कारण उनके स्वरूप और गुणवत्ता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं । हम यह तो चाहते हैं कि व्यवस्था से भ्रष्टाचार खत्म हो जाए पर कई बार हम खुद ही ऐसे कई कार्य कर रहे होते हैं जो नैतिकता की दृष्टि से गलत और भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही आते हैं । पर हम यह कहकर बड़ी आसानी से निकल जाते हैं कि एक व्यक्ति के ऐसा करने से क्या फर्क पड़ जाएगा या कि भला हम अमुक चीज़ को कैसे बदल सकते हैं । बल्कि हमें यह समझना होगा कि जिस तरह से बूंद - बूंद से घड़ा भरता है उसी तरह हर एक व्यक्ति को अपने अंदर बदलाव लाने से ही व्यवस्था को बदला जा सकता है , क्योंकि व्यवस्था कभी भी व्यक्तियों से अलग नहीं होती ।

      अगर हर व्यक्ति भ्रष्टाचार का विरोध और ईमानदारी की भावना को अपनी आदत के रूप में ढाल ले तो निश्चित रूप से समाज भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगा । हमें में क्या और मेरा क्या की भावना से उबरना होगा तभी हम गांधी जी के रामराज की अवधारणा के करीब पहुँच पाएंगे । हमें विश्व कल्याण और विश्व बन्धुत्व की भावना को मजबूत करना होगा , जहाँ त्याग हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है । हमें इस बात को समझना पड़ेगा कि   -

         " परहित सरिस , धरम नहि भाई । 
           पर पीड़ा सम नहि अधमाई । " 

जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइए : गांधी जी- निबंध (upsc), Whatever change you want to see in others, bring in yourself first: Gandhiji- Essay (upsc)


  रुजवेल्ट का यह कथन गांधी के खुद को परिवर्तित करने की धारणा के करीब दिखाई देता है कि- " तुम जो कर सकते हो वह करो , जहाँ तुम हो और जो कुछ तुम्हारी सामर्थ्य है । " हम गरीबों के कल्याण , अन्याय मिटाने और हिंसा को खत्म करने में अपनी तरफ से जो भी और जितना भी योगदान दे सकते है जरूर दें । पर्यावरण प्रदूषण फैलाने के लिये उद्योगपतियों को कोसने की बजाय खुद से भी यह संकल्प लें कि हम पर्यावरण मैत्री जीवन शैली अपनाएँ , क्योंकि प्रदूषण कल - कारखानों के साथ ही हमारे द्वारा प्लास्टिक की थैलियों को इधर - उधर फेंक देने तथा बहती नदियों में कूड़ा - कचरा , मल फेंकने और गाड़ियों के धुँए को फैलाने जैसी तमाम चीजों से भी होता है । गांधी जी का कथन है कि- " उस आस्था का कोई मूल्य नहीं जिसे आचरण में न लाया जा सके । अगर आप न्याय के लिये लड़ रहे हैं तो ईश्वर सदैव आपके साथ है " वर्तमान में नारी के अधिकारों के लिये लड़ने वाले खुद उनके शोषण में तल्लीन पाए जाते हैं । सिर्फ नारी के समर्थन में आंदोलन कर देने से स्थिति नहीं बदलेगी उसके लिये हमें अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलना होगा जो कि कई बार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीकों से दिखाई पड़ जाती है । जैसे कि निर्भया कांड के बाद अक्सर यह नारा लग रहा था कि- " दिल्ली पुलिस एक काम करो , चूड़ी पहन के डांस करो । " आप अगर दिमाग पर जोर डालें तो यह नारी विरोधी मानसिकता ही दिखती है जिसने स्त्री के रहन - सहन से लेकर पहनावे तक को कायरता का प्रतीक मान लिया है , जिनमें से चूड़ी पहनना भी एक है । आखिर जब तक हम स्त्रियों के संबंध में अपनी दूषित मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक कैसे पुलिस उनके खिलाफ बढ़ती हिंसा और अपराधों को रोक पाएगी । 

     हमारा योगदान जरूर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करेगा जहाँ हम अपने कर्तव्यों को सेवा भाव के साथ स्वीकार करेंगे क्योंकि मनुष्य तभी विजयी होगा जब वह जीवन संघर्ष की बजाय परस्पर सेवा हेतु संघर्ष करेगा । आज के दौर में जहाँ गांधी जी की लाठी का स्थान बंदूक ले रही हैं . एक थप्पड़ के बदले दूसरे की हत्या की जा रही है वैसे दौर में जरूरी हो गया है कि हम खुद को बदलें , हर व्यक्ति के अंदर की दूषित मानसिकता बदल गई तो समाज भी बदलेगा । अगर हम किसी से अच्छा व्यवहार करेंगे तो सामने वाला भी ऐसा करने को मजबूर होगा क्योंकि अगर बंदूक का जवाब बंदूक , सर काटने का जवाब सर काटकर किया जाता रहा तो धीरे - धीरे दुनिया खत्म हो जाएगी । अगर सामने वाला गलत है तो उसके लिये हम स्वयं को गलत क्यों बनाएँ । हम प्यार भरा बर्ताव ही करें , जिससे कि उसे स्वयं में ही अपराधबोध महसूस हो और वह अपने बर्ताव को बदले । हिंसा का जवाब हिंसा से देना उस व्यक्ति की हिंसक प्रवृत्तियों को बढ़ाने का कार्य करता है । हमें कबीर की इन पंक्तियों को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा कि -

   " जो तोकू काँटा बुवै , ताहि बोऊ तू फूल । 
    ताको फूल को फूल हैं , वाको हैं तिरसूल ॥ " 

बुद्ध के संबंध में एक कथा प्रचलित है कि एक बार एक व्यक्ति ने उनको खूब गालियाँ दीं और जब तक उसने बुद्ध को गालियाँ दीं वे शांत भाव से सुनते रहे और मुस्कराते रहे । वह व्यक्ति आश्चर्यचकित भाव से उन्हें देखता रहा और इस व्यवहार का कारण पूछा तब बुद्ध ने कहा कि जिस तरह से अगर तुम कोई सामान मुझे दो और मैं न लूँ तो तुम्हारे ही पास रह जाता है ठीक उसी तरह मैंने तुम्हारी गालियों का जवाब नहीं दिया और वे तुम्हारे पास ही रह गईं । वह व्यक्ति शर्मिंदा हो गया और अपने इस बर्ताव के लिये बुद्ध के पैरों पर गिरकर माफी मांगी । यह बात हमें भी समझनी पड़ेगी कि अगर हमने खुद को बदला तो सामने वाला व्यक्ति हमसे प्रेरणा लेकर बदलेगा और फिर समाज और देश भी बदलेगा । वर्तमान में सफाई अभियान पर हमारी सरकार द्वारा अधिक - से - अधिक जोर डाला जा रहा है जिसमें गंगा जैसी तमाम नदियों की सफाई से लेकर हमारे घर - आंगन और सड़कें शामिल हैं । निश्चित रूप से यह एक सराहनीय प्रयास है जिसमें सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि हम सबको मिलकर समाज में फैली आंतरिक और बाह्य दोनों गंदगियों के खिलाफ एक जंग लड़नी है । क्योंकि भले ही कितने भी सम्मेलन क्यों न हो लें परन्तु प्रत्येक नागरिक के व्यक्तिगत प्रयास के बिना पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त नहीं हुआ जा सकता । 

       गांधी जी को भी साफ - सफाई बहुत प्रिय और अपने आश्रम व शौचालय आदि की सफाई वे खुद ही किया करते थे और आजीवन अपने परिचय में आने वाले हर एक व्यक्ति को वह इसके लिये प्रेरित भी करते रहे क्योंकि वह स्वयं भी इसका उदाहरण पेश करते थे । आज भी अगर हर नागरिक व्यक्तिगत रूप से समाज की विकृत करने वाली हर बुराई से खुद को दूर कर ले तो पूरी दुनिया को तमाम सामाजिक बुराइयों से मुक्त होने में देर नहीं लगेगी । से हमारा आचरण और व्यवहार गांधी जी के सादा जीवन और उच्च विचार की भावना पर ही आधारित होना चाहिये जहाँ साध्य की बजाय साधन की पवित्रता पर अधिक बल दिया गया है । आज के दौर में जहाँ साध्य को साधने के लिये तमाम अपवित्र साधनों का इस्तेमाल चरम पर है गांधी अपने हर रूप में प्रासंगिक हो जाते हैं ।

            आधुनिक सभ्यता में हमारे अंदर का इंसान मरता जा रहा है । इस नितांत भौतिकवादी सभ्यता ने हमें रात को दिन में और सुनहरी खामोशी को पीतल के कोलाहल और शोरगुल में बदलना सिखाया है । हम बस खुद का विकास चाहते हैं , और प्रकृति की कीमत पर पूंजी और धन - दौलत की मृगमरीचिका हमें अपने लक्ष्यों से भटका रही है । 

       आइंस्टीन ने एक बार गांधी जी के बारे में कहा था कि , “ हमारी आने वाली पीढ़ियाँ यकीन नहीं कर पाएंगी कि हाड़ और मांस के पुतले में कोई ऐसा भी इंसान हुआ था । " गांधी अफ्रीका से लेकर भारत तक के अपने समस्त आंदोलनों में हमेशा खुद से शुरुआत कर अंत समय तक अटल रहे फिर धीरे - धीरे लोग मिलते गए और कारवाँ बढ़ता गया । उनमें आज़ादी पाने और अंग्रेजों को भगाने की जल्दी के बजाय , गरीबी , अस्पृश्यता और भ्रष्टाचार का स्थायी समाधान तलाशने की उधेड़बुन थी । गांधी के संबंध में के . एम . मुंशी का विचार है " उन्होंने अराजकता पाई और उसे व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया , कायरता पाई और उसे साहस में बदल दिया और बिना किसी प्रकार की हिंसा या सैनिक शक्ति का प्रयोग किये एक साम्राज्यवादी शक्ति के बंधनों का अंत कर विश्व शक्ति को जन्म दिया । " 

        हम सबको सामाजिक बदलावों के लिये अपनी आदतों , विचारधारा और जीवन शैली की रूढ़िवादिताओं को बदलना होगा । हमें सकारात्मक अर्थों में धर्म को अपनाना होगा जिसका अर्थ है- धारण करना । हर पल यह सोचना होगा कि हमारे अमुक कृत्य से पंक्ति के अंतिम आदमी तथा सबसे गरीब व्यक्ति पर क्या फर्क पड़ेगा तभी दूसरों में बदलाव को लेकर हमारी अपेक्षाएँ भी फलीभूत होंगी । गांधी जी के इस कथन का निष्कर्ष एक कहानी से करते हैं नहीं " एक बार एक जंगल में आग लगी और एक चिड़िया बगल की नदी से जाती और अपनी चोंच में पानी भरकर जंगल में डालती । उसे ऐसा करते देखकर एक बंदर उस पर हँसा और पूछा कि क्यों मूखों वाला काम कर रही हो ? इससे जंगल की आग बुझने वाली । इस पर चिड़िया का जवाब हमें अपने जीवन व्यवहार में उतारने की जरूरत है । चिड़िया ने कहा कि " मेरे द्वारा ऐसा करने से जंगल की आग भले ही न बुझे पर जब भी जंगल का इतिहास लिखा जाएगा मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं , आग बुझाने वालों में शुमार होगा । "


जो बदलाव आप दूसरों में देखना चाहते हैं पहले स्वयं में लाइए : गांधी जी- निबंध (upsc) - 2013 में पूछा गया 

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