क्या प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता स्तर युवाओं के हित में है ?
विषय की शुरुआत इन पंक्तियों के साथ करते हैं
“ अब हवाएँ ही करेंगी , रोशनी का
फैसला , जिस दिये में जान होगी , वो
दिया रह जाएगा ।। ”
प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता दौर हवाओं की तरह ही है जहाँ योग्य और कुशल लोग अपनी कठिन मेहनत के फलस्वरूप बचे रह जाएंगे और आलसी तथा अयोग्य लोग प्रतियोगिता से पहले ही बाहर कर दिये जाएंगे । वर्तमान की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के दौर में मुकाबला योग्य व्यक्तियों में से अधिक योग्य को चुनना है न कि योग्य और अयोग्य में से चुनाव करना है । डार्विन ने ' योग्यतम की उत्तरजीविता ' ( सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट ) का सिद्धांत दिया था ; अर्थात् प्रकृति में वही बच जाएगा जो कठिन प्रतिस्पर्द्धा में अपना अस्तित्व बचाए रखेगा । जीव - जीवन का यह सिद्धांत हमारे सामान्य जीवन की बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा पर भी लागू होता है । परन्तु एक बात तो तय है कि प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ते स्तर ने व्यक्ति को निरन्तर सृजनशील और कर्त्तव्य पक्ष की ओर अग्रसर रहने को प्रेरित किया है । पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था , " दो तरह के लोग हैं एक वे जो काम करते हैं और दूसरे वे जो केवल ' क्रेडिट ' लेते हैं । प्रयास करिये कि आप पहले समूह में रहें । वहाँ कम प्रतिस्पर्द्धा है । " गांधी जी ने साध्य के साथ ही साधनों की पवित्रता पर भी बल दिया था ।
वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में एक बड़ा तबका ऐसा है जो ' शॉर्टकट ' द्वारा किसी भी तरह से सफलता प्राप्त करने में विश्वास करता है , जो हर अच्छे कार्य का क्रेडिट लेना चाहता है और एक ऐसा तबका है जो अपनी कठिन मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करता है । ऐसे ही लोग लम्बी रेस के घोड़े होते हैं । गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में दूसरे को धक्का देकर आगे बढ़ जाने की भावना ने मानव के बीच के इंसानी रिश्ते को खत्म किया है । प्रतिस्पर्द्धा में जब ईर्ष्या - द्वेष की भावना घर कर जाती है तो परिणाम अच्छे नहीं होते । युवाओं के हित में स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा ही है जहाँ असफलता में भी सीख की भावना छिपी होती है और सफलता में विनम्रता ।
एक तरफ जहाँ विश्व के तमाम विकसित देश बूढ़े हो रहे हैं वहीं भारत की आधी से अधिक जनसंख्या 25 वर्ष की औसत आयु वाली है । हमारी जनसंख्या , हमारे मानव संसाधन ही हमारी मज़बूती हैं । पूरे विश्व में भारतीय प्रतिभा का डंका बज रहा है । गणित , विज्ञान , तकनीक , साहित्य , कला लगभग हर क्षेत्र में भारतीय प्रतिभाएँ नित नए प्रतिमान स्थापित कर रही हैं । विज्ञान और तकनीक , सूचना और संचार क्रांति के युग में भारतीय प्रतिभाएँ पूरे विश्व की प्रतिभाओं को कड़ी टक्कर दे रही हैं । हमारे देश में प्रतिस्पर्द्धा का चरम स्तर यह है कि अगर विद्यार्थी ने विश्वविद्यालय के कुछ प्रमुख महाविद्यालयों में अपने 12 वीं की बोर्ड परीक्षा में शत - प्रतिशत अंक भी प्राप्त किये हैं तो भी दिल्ली दाखिले को लेकर वह निश्चित नहीं बैठ सकता ।
इसका एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि अब चाहे बोर्ड परीक्षाएँ हों अथवा तमाम प्रतियोगी परीक्षाएँ , उसमें सफलता प्राप्त करने के लिये जी - तोड़ मेहनत करनी ही पड़ेगी । सिर्फ शिक्षा ही नहीं , फिल्म , खेल , मीडिया , संगीत जैसे अन्य तमाम क्षेत्रों में भी प्रतिस्पर्द्धा का स्तर कड़ा हो गया है । आप सिर्फ एक फिल्म में अच्छा अभिनय करके प्रसिद्धि और सफलता की गारंटी नहीं ले सकते , इसके लिये आपको सतत रूप से अच्छा अभिनय करना ही पड़ेगा , नहीं तो तमाम योग्य युवा अभिनेताओं की एक लम्बी कतार है , जिनके करियर के लिये आपकी बस एक गलती , एक असफलता वरदान सिद्ध हो सकती है । यह बात खेल के क्षेत्र में भी लागू होती है । चाहे फुटबॉल हो , वॉलीबॉल , हॉकी अथवा क्रिकेट हो , हर खेल में बच्चों की रुचि को लेकर उनके माता - पिता तथा अभिभावक जागरूक हैं , उसके लिये पर्सनल कोच से लेकर घर में ही अभ्यास करने की तमाम सुविधाएँ उपलब्ध हैं । वर्तमान प्रतिस्पर्द्धा का दौर योग्यतम में से सर्वश्रेष्ठ के चुनाव का है ।
यह सच है कि प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता स्तर युवाओं को कठिन मेहनत करने की प्रेरणा देता है , परंतु सिर्फ ' हार्ड - वर्क ' नहीं , ' स्मार्ट - वर्क ' भी करना है । आपको तभी वरीयता दी जाएगी जब आपकी प्रतिभा बहुआयामी होगी । आपको हिन्दी के साथ - साथ अंग्रेज़ी भी सीखनी पड़ेगी , बल्लेबाजी के साथ ही गेंदबाजी के भी गुर होने चाहियें , यानी आपको ऑलराउंडर बनना पड़ेगा । आपको रचनात्मक और मौलिक होना पड़ेगा क्योंकि वर्तमान युग बाज़ार का युग है और बाजार में वही टिकेगा जो बिकेगा । जिस दिन चमक कम पड़ी बाजार प्रतियोगिता से बाहर कर देगा । ' अंधों में काना राजा ' बनने का ज़माना लद गया । अब कदम - कदम पर आपको जागरूक और सचेत रहना पड़ेगा । राजनीति के क्षेत्र में देखें तो वहाँ भी युवाओं ने भ्रष्ट और जड़ हो चुकी व्यवस्था में नई आशाएँ जगाई हैं । जनता ने भी राजनीति के तमाम पुराने दिग्गजों को बाहर कर दिया है । अब कोई सिर्फ इस आधार पर चुनाव नहीं जीत सकता कि वह किसी मंत्री या प्रधानमंत्री का बेटा अथवा बेटी है , उसे जनसेवा के लिये प्रतिबद्ध होना ही पड़ेगा । प्रतिस्पर्द्धा का ऐसा स्तर निश्चित रूप से युवाओं के हित में है , जहाँ प्रतिभाएँ विरासत तथा जोड़ - तोड़ के आगे दम नहीं तोड़ती हैं । अब गुणवत्ता और योग्यता में पिछड़ने का मतलब होगा विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने का हमारा सपना टूटना । ध्यातव्य है कि चीन अपनी युवा प्रतिभाओं के बल पर हर क्षेत्र में हमें कड़ी टक्कर दे रहा है ।
" आपको रचनात्मक और मौलिक होना पड़ेगा क्योंकि वर्तमान युग बाज़ार का युग है और बाज़ार में वही टिकेगा जो बिकेगा । जिस दिन चमक कम पड़ी बाज़ार प्रतियोगिता से बाहर कर देगा । ' अंधों में काना राजा ' बनने का ज़माना लद गया । अब कदम कदम पर आपको जागरूक और सचेत रहना पड़ेगा । राजनीति के क्षेत्र में देखें तो वहाँ भी युवाओं ने भ्रष्ट और जड़ हो चुकी व्यवस्था में नई आशाएँ जगाई हैं । जनता ने भी राजनीति के तमाम पुराने दिग्गजों को बाहर कर दिया है । "
विषय के दूसरे पहलू पर भी हमें विचार करना होगा । प्रतिस्पर्द्धा के उस दौर में जहाँ 100 प्रतिशत अंक भी आपकी सफलता की गारंटी नहीं हो सकते , वहाँ 99.9 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्र की कुण्ठा , तनाव और निराशा को समझा जा सकता है । जरा उस छात्र के बारे में सोचें जिसने 50 प्रतिशत अंक पाए हैं ; इसे भी छोड़ दें , उस छात्र के संबंध में विचार करें जो किसी कारणवश फेल हो गया है । इस फेल होने को वह छात्र ' अंकों ' को ही योग्यता का पैमाना मानने वाले इस दौर में कैसे बर्दाश्त कर पाएगा । वह जिंदगी के खत्म होने में ही समस्याओं का समाधान ढूँढने लगता है और भविष्य के न्यूटन , आइंस्टीन और कालिदास बनने वाली न जाने कितनी प्रतिभाएँ फाँसी के फंदों को चूम लेती हैं । प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर ने अभिभावकों की भी दबी आकांक्षाओं को उफान पर ला दिया है और उनकी आकांक्षा न पूरी करने पर वे बच्चे को नकारा मान लेते हैं । गली - मुहल्ले और चिर - परिचितों की महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी चढ़ने को तमाम युवा अभिशप्त हैं । मनचाही नौकरी न मिलने पर प्रतियोगिता में असफल होने पर भी जिस धैर्य की आवश्यकता है वह प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में युवाओं में गायब होती जा रही है । तनाव , कुण्ठा , हताशा , निराशा की बढ़ती प्रवृत्तियों ने युवाओं को आत्महत्या के माध्यम से जीवन समाप्त कर लेने वाला , अपराधी तथा ड्रग एडिक्ट बनाया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में भारत को आत्महत्या की राजधानी घोषित किया है । भारत में आत्महत्या करने की औसत दर लगभग प्रति एक लाख पर 21 व्यक्ति प्रति वर्ष है और सबसे चिंताजनक बात यह है कि इसमें 35 प्रतिशत से भी अधिक आत्महत्या करने वालों की संख्या युवाओं की है । हमारी सरकार और नीति - नियंताओं को नए परिप्रेक्ष्य में अपनी शिक्षा प्रणाली के मूल्यांकन की आवश्यकता है जो पढ़े - लिखे बेरोज़गारों की फौज तैयार कर रही है ।
निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता स्तर गलत नहीं है , लेकिन यह युवाओं के हित में तभी होगा जब शिक्षा द्वारा समाज के तमाम विरोधाभासों को दूर करके एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा का माहौल तैयार किया जाएगा । दिन - रात काम करने की बाज़ारवादी प्रवृत्ति से भी निजात पाने की ज़रूरत है , इसने युवाओं को चिड़चिड़ा बना दिया है और वह बहुत जल्दी अपना धैर्य और संयम खो देते हैं । सम्पूर्ण जीवन ही प्रतिस्पर्द्धा का नाम है , प्रेम से लेकर रोटी तक संघर्ष है और संघर्ष का नाम ही जीवन है ।
क्या प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता स्तर युवाओं के हित में है, क्या प्रतिस्पर्द्धा का बढ़ता स्तर युवाओं के हित में है : निबंध
Post a Comment