क्या पूंजीवाद द्वरा समावेशित विकास हो पाना संभव है ! (निबंध )
"विभिन्न विचारक भले ही अलग-अलग तरीके से दुनिया की व्याख्या करते हों लेकिन उनके मूल में एक ही बात होती है कि परिवर्तन किस प्रकार लाया जाए।" कार्ल मार्क्स का उपरोक्त कथन इस बात का संकेत करता है कि लगभग हर विचार इस बात पर सहमत होता है कि परिवर्तन हो। उनके बीच इन्द्र इस बात का होता है कि परिवर्तन का स्वरूप क्या हो अथवा परिवर्तन का माध्यम क्या हो। फिर हर विचार यह दावा करता है कि वह मानव कल्याण के उद्देश्य से संचालित है या यूँ कहें कि मानव को बेहतरी के लिये आवश्यक है कि उसके विचार पर चला जाए। समावेशी विकास, अर्थात् विकास का लाभ निरपेक्ष रूप से हर व्यक्ति तक पहुँचे, की अवधारणा भी मानव की बेहतरी से जुड़ी हुई है, जिसको लेकर विभिन्न विचारों के अपने-अपने दावे हैं। वर्तमान संदर्भ में अगर देखें तो जहाँ पूजीवाद के समर्थक इसे विकास का सबसे बेहतर मॉडल बता रहे हैं तो वहीं इसके विरोधी मत का तर्क यह है कि 'समावेशी पूजीबाद' (Inclusive Capitalism) अपने आप में एक अंतविरोधी शब्दावली है तथा पूजीवाद की स्थापना में ही असमानता का तत्त्व निहित है।
अपने प्रारंभिक अर्थ से अलग पूंजीवाद आज उस संदर्भ में अधिक प्रचलित है जिसे कार्ल मार्क्स ने औद्योगिक क्रांति के बाद परिभाषित किया। चूंकि पूंजीवाद, पूंजी आधारित व्यवस्था की बात करता है इसलिये स्वाभाविक तौर पर जो धनी है (अर्थात् जिसके पास अधिक पूंजी है) उसके पास आगे बढ़ने के उतने ही रास्ते है जबकि जिसके पास पूंजी का अभाव है वह पिछड़ता हो जाएगा। फिर अधिशेष उत्पादन पर भी उसका ही अधिकार होगा जिसकी पूंजी होगी। इस तरह पूरी उत्पादन प्रणाली कुछ ही लोगों के नियंत्रण में आ जाती है तथा उत्पादन में शामिल गैर पूजीधारी वर्ग, अर्थात् श्रमिक निर्वाहमूलक आय तक ही सीमित कर दिये जाते हैं। जाहिर है कि इससे असमानता बढ़ेगी और सबसे बढ़कर यह असमानता पूजीवाद के दर्शन में ही निहित है। यद्यपि यह पूजीवाद को क्लासिकल व्याख्या है किन्तु असमानता का वर्तमान स्वरूप इसे पुष्ट करता है। अभी दुनिया के 85 सबसे अमीर आदमियों के पास उतनी ही सम्पत्ति है जितनी विश्व के निर्धनतम 3.5 अरब लोगों के पास असमानता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? फिर किसी कम्पनी के शीर्ष अधिकारियों और निचले स्तर के कामगारों के बीच वेतन का फासला लगभग 300 गुना है। ऐसे में समानता की बात अर्थहीन सी लगती है, विशेषकर तब जब एक बड़ी जनसंख्या भोजन, स्वास्थ्य और आवास जैसी मूलभूत सुविधाओं से वचित हो जबकि दूसरी तरफ खाद्य कम्पनियाँ, निजी अस्पताल और रियल एस्टेट का कारोबार निरंतर मुनाफा कमा रहा हो। पूंजीवाद के समर्थक इस संदर्भ में 'ट्रिकल डाउन सिद्धांत' के द्वारा यह प्रतिपादित करते हैं कि यह दृश्य मुनाफा रिसकर नीचे के स्तर तक जाता है तथा विकास सभी लोगों तक पहुँचता है। किन्तु इसका विरोधी मत यह मानता है कि पूजीवादी व्यवस्था 'यश अप' सिद्धांत पर कार्य करती है। अर्थात् उत्पादन प्रणाली पर अधिकार जमाए लोग नीचे से सारे संसाधनों को सोखकर मुनाफा कमाते हैं। 'निराला' के शब्दों में कहा जाए तो
"अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू,
रंग-ओ-आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है कैपिटलिस्ट!"
फिर पूजीवाद उस अति व्यक्तिवाद को धारणा पर टिका होता है जो यह मानता है कि व्यक्तित्व के निर्माण में परिवेश से कहीं अधिक स्वयं के प्रयास का योगदान होता है। यही कारण है कि अमीर लोगों में यह धारणा घर कर जाती है कि वे सिर्फ अपने प्रयास के कारण धनों हुए हैं तथा जो गरीब है वे 'कुछ न करने के कारण गरीब हुए हैं। जाहिर है यह धारणा समानता स्थापित करने के किसी भी प्रयास का विरोध ही करेगी। इसके अतिरिक्त मुक्त अर्थव्यवस्था की अवधारणा भी समावेशन के सिद्धांत के विरुद्ध है। दरअसल, बाजार को चलाने वाले जिस 'अदृश्य हाथ की बात एडम स्मिथ ने की थी. उसका स्थान अब 'मजबूत हाथ' (बड़े औद्योगिक समूहों) ने ले लिया है। बाज़ार का स्वरूप इतना जटिल हो चुका है कि बड़े पूंजीधारी समूह अनेक उपक्रमों के माध्यम से बाजार पर हावी हो जाते है, जिस कारण छोटे व्यापारी प्रतिस्सद्धों से बाहर हो जाते हैं। बालमार्ट का विरोध भी इसी कारण से हो रहा है। सबसे बढ़कर पूजीवादी मत कि सरकारी हस्तक्षेप को न्यूनतम किया जाए, बावजूद इसके कि विश्व की अधिसंख्य जनसंख्या 'जीने लायक' स्थिति तक में नहीं है, यह स्थापित करता है कि पूंजीवाद समावेशन के सिद्धांत के विपरीत सिर्फ मुनाफे की बात करता है। उपरोक्त तर्कों के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत समावेशी विकास संभव नहीं है। किन्तु यह एकांगी व्याख्या ही प्रस्तुत करता है। सबसे बढ़कर पूजीबाद की किसी एक 'स्थिर परिभाषा' के बजाय हमें इसके बदलते स्वरूप के संदर्भ में इसे विश्लेषित करना चाहिये। यह इसलिये क्योंकि वर्तमान समाज, जिसे 'ज्ञान आधारित समाज' कहा जाता है, में प्रगति के साधन के रूप में ज्ञान अर्थात कौशल अधिक महत्त्वपूर्ण हो चला है, बजाय पूंजी के। यह सही है कि जिसके पास पूंजी है वह लाभ की स्थिति में है किन्तु यह कहना उचित नहीं है कि लाभ में सिर्फ नहीं है जिसके पास पूंजी है। आज ऐसे अनेक सफल उदाहरण मौजूद है, जैसे- बिल गेट्स, मार्क जुकरवर्ग इत्यादि जो यह सिद्ध करते हैं कि सफलता के लिये गहन पूंजी अब प्राथमिक नहीं रह गई। और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो अब उत्पादन प्रणाली में स्वामित्व का आधार पूंजी से खिसककर ज्ञान और कौशल की तरफ जा रहा है। फिर पूँजीवाद लोकतंत्र के जिस मूल्य पर आधारित है वह अवसरों की समानता को प्रोत्साहित करता है। हाँ, यह कहा जा सकता है कि अवसर तक सबको समान पहुँच नहीं है। किन्तु यहाँ यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान पूंजीवादी स्वरूप यह प्रयास कर रहा है कि अवसरों तक सबको पहुँच सुनिश्चित हो। इसके लिये एक तरफ गेट्स-बफेट मॉडल तो है ही, जिसमें अजीम प्रेमजी जैसे उद्योगपति भी शामिल हैं, जो परोपकारिता के माध्यम से लोक कल्याण के कार्य में संलग्न हैं तो दूसरी तरफ पूंजीपतियों का शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि में निवेश भी पूंजीवाद को उस परम्परागत व्याख्या के विरुद्ध है कि यह मूलतः शाषणमूलक व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त 'सार्वजनिक निजी भागीदारी (PPP)' जैसी अवधारणा निजी उद्यम और राज्य के बीच स्पष्ट विभाजन को समाप्त करती है। यह भी पुजीबाद के बदलते स्वरूप का द्योतक है। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि अब पूंजीवाद को दो वर्गों क बीच अनिवार्य संघर्ष के रूप में न देखकर परस्पर अवसर उत्पन्न करने वाली व्यवस्था के रूप में देखना चाहिये।
वस्तुतः पूंजीवाद ने समय के साथ खुद को बदला भी है। यही वजह है कि जिस 'मुक्त अर्थव्यवस्था' को एडम स्मिथ ने राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त आर्थिक गतिविधि के रूप में निरूपित किया था. कालांतर में एक अन्य पूजीवादी अर्थशास्त्री जॉन मैनाई कॉम ने कुछ हद तक राज्य की भूमिका को स्वीकार किया। साथ ही अगर हम यह कहे कि पूजीवाद में समावेशी विकास संभव नहीं है तो फिर प्रश्न है कि हमारे सामने ऐसी कौन-सी सफल व्यवस्था उदाहरण के रूप में मौजूद है जो समावेशी विकास से युक्त हो? दुर्भाग्य से हमारे सामने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसका हम पालन कर सकें। अगर पूजीवाद की धुर विरोधी विचारधारा साम्यवाद को ही लें तो, यद्यपि वह समानता की बात तो करता है किन्तु उसका कोई सफल उदाहरण देने में वह असफल रहा है। उत्तर शीतयुद्ध काल में तो पूजीवाद हो वैश्विक विकास के मॉडल रूप में उभरा है। सबसे बढ़कर आज जिस समावेशी विकास की बात की जा रही है उसमें मध्यवर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका है किन्तु साम्यवादी व्यवस्था में यह वर्ग अनुपस्थित है। फिर साम्यवादी कहलाने वाले देश, जैसे- रूस, चीन इत्यादि भी अगर पूजीवादी व्यवस्था को अपना रहे हैं तो यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिये कि पूंजीवादी व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक सफल व्यवस्था है।
क्या पूंजीवाद द्वरा समावेशित विकास हो पाना संभव है ! (निबंध )
इसके अतिरिक्त, उत्तर औद्योगिक युग में जब नवाचार और तकनीक प्रगति के प्रमुख साधन के रूप में उभरे हैं तब वह व्यवस्था अधिक समावेशी कही जा सकती है जिसमें प्रोत्साहन अधिक हो। इस दृष्टि से पूंजीवाद समावेशी विकास के निकट प्रतीत होता है। इसके अलावा, मध्यवर्ग की बढ़ती जनसंख्या भी समावेशी विकास का द्योतक है क्योंकि इससे परम्परागत वर्गीय स्तरीकरण कमज़ोर होता है। साथ ही उद्योग आधारित विकास का एक लाभ यह भी है कि अधिक-से-अधिक लोग संगठित क्षेत्र में आ जाते हैं जिससे सामाजिक सुरक्षा का दायरा मजबूत होता है। उदाहरण के लिये यदि मनरेगा जैसे कार्यक्रम के बजाय उद्योग आधारित रोजगार सृजन कार्यक्रम चलाया जाता तो वह कहीं अधिक स्थायित्वकारी सिद्ध होता। साथ ही, कृषि क्षेत्र में भी कॉरपोरेट कृषि तथा अनुबंध आधारित कृषि माध्यम से अच्छे परिणाम लाए जा सकते हैं। पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप ने श्रम व्यवस्था को असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र की ओर गतिमान किया है। यह परिवर्तन समावेशीकरण की प्रक्रिया के अधिक निकट हैं।
अतः यह कहना उचित नहीं होगा कि पूंजीवाद में समावेशी विकास संभव नहीं है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि पूंजीवाद अपनी स्थापना में निर्दोष है तथा इसका वर्तमान स्वरूप अत्यधिक समावेशी है, किन्तु ऐसा भी नहीं है कि यह अपनी बुनियाद में ही असमावेशी है। इस संदर्भ में चॉमस पिकेटी का यह कथन कि "जब तक विकास दर मुनाफा दर से संतुलित नहीं कर दी जाती तब तक समावेशी विकास संभव नहीं है" अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। पूंजीवाद को समावेशी बनाने के लिये आवश्यक है कि वित्त का विकेन्द्रीकरण किया जाए तथा लाभ महत्तमीकरण को विकास दर के साथ समायोजित किया जाए। दरअसल, यदि विकास दर बढ़ती है तो कमावेश हर वर्ग पर इसका सकारात्मक असर पड़ता है किन्तु मुनाफा दर में वृद्धि से सिर्फ संबंधित व्यक्ति या संस्था को ही फायदा होता है। अर्थात् मुनाफा दर जहाँ व्यक्ति केन्द्रित उन्नति को द्योतक है वहीं विकास दर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बेहतरी का सूचक है। अतः समावेशीकरण के लिये आवश्यक है कि विकास दर बेहतर स्थिति में हो। "जोसेफ स्टिगलिट्ज कहते हैं कि "समावेशीकरण में पूंजीवादी व्यवस्था से प्रभावित शासन व्यवस्था को भी नीतिगत परिवर्तन करना होगा।" अर्थात् उत्पादन प्रणाली से हर वर्ग को जोड़ने में मददगार नीति ही समावेशीकरण में सहायक सिद्ध होगी। अतः यह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत समावेशी विकास संभव है किन्तु इसे पूर्णता प्रदान करने के लिये अभी एक लम्बी यात्रा तय करनी बाकी है।
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